ग़ज़ल
इस शहरी आबादी को, जंगल में बोया जाए,
परबत के दामन हैं ख़ाली, चलो वहीँ सोया जाए.
जीवन भर के सृजित हीरे, आँख खुली तो पत्थर थे,
चुन कर लाए जहाँ से इनको, वहीँ कहीं खोया जाए.
आहें निकलें, आंसू बरसें, हस्ती का कुछ बोझ कटे,
मन भारी है, तन है बोझिल, फूट फूट रोया जाए.
ऐ फ़ातेह! यह तेरा जिगरा, बस्ती है वीरान पड़ी,
तौबा का साबुन ले आओ, दाग़ ए जिगर धोया जाए.
दुःख को ढूंढो बाती लेकर, मिले कहीं तो बतलाना,
सुख की गठरी नहीं है सर पे, इस पर क्यों रोया जाए.
जुल दे कर भागी है "मुंकिर" उम्र जवानी हाय रे अब,
बूढ़ी पीठ पे इस की करनी, किस बल से ढोया जाए.
اِس شہری آبادی کو، جنگل میں بویا جاۓ
پربت کے دامن ہیں خالی، چلو وہیں، سویا جاۓ٠
جیون بھر کے سِرجت ہیرے، آنکھ کُھلی تو پتھر تھے
چُن کر جہاں سے لاۓ انکو، وہیں کہیں کھویا جاۓ٠
آہیں نکلیں، آنسو برسیں، ہستی کا کچھ بوجھ کٹے
من بھاری ہے، تن ہے بوجھل، پھوٹ پھوٹ رویا جاۓ٠
ائے فاتح، یہ تیرا جگرا، بستی ہے ویران پڑی
توبہ کا صابن لا کر دے، داغِ جگر دھویا جاۓ٠
دُکھ کو ڈھونڈھو باتی لیکر، کہیں ملے تو بتلانا
سُکھ کی گٹھری نہیں ہے سر پر، اس پر کیوں رویا جاۓ٠
جُل دیکر بھاگی ہے منکر، عمر جوانی ہاۓ رے اب
بوڑھی پیٹھ پہ اس کی کرنی، کس بل سے ڈھویا جاۓ٠
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