Sunday, May 18, 2014

Junbishen 260



गज़ल

सुब्ह फिर शुरू हुई है, आँखें फिर हुई न हैं नम,
चल गरानी ए तबअ, सर पे रख के अपने ग़म.

नेमतें हज़ार थीं, इक ख़ुलूस ही न था,
तशना रूह हो गई, भर गया था जब शिकम.

बे यक़ीन लोग हैं, उन सितारों की तरह,
टिमटिमा रहे हैं कुछ, और दिख रहे है कम.

उँगलियाँ थमा दिया था, मैं ने उस कमीन को,
कर के मुझको सीढयाँ, सर पे रख दिया क़दम.

कहर न गज़ब है वह, फ़ितरी वाक़ेआत हैं,
तुम मुक़ाबला करो, वोह है माइले सितम.

राज़दार हो चुका है, कायनात का जुनैद,
जुज़्व बे बिसात था, कुल में हो गया है ज़म.

1 comment:

  1. ऐ मुस्तक़िल मुल्के-ख़ुदा तिरी तारीकी गई नहीं..,
    या गज़ब गजरदम तलक जलती रही शम्मे-हरम .....

    मुस्तक़िल = आज़ाद
    मुल्के-ख़ुदा =जहां
    गजरदम = सुबह होने के पूर्व का समय

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