Saturday, May 31, 2014

Junbishen 294


गज़ल

आप वअदों की हरारत को, कहाँ जानते हैं.
हम जो रखते हैं, वह पत्थर की ज़ुबाँ जानते हैं.

पुरसाँ हालों को, बताते हुए मेरी हालत,
मुस्कुराते हैं, मेरा दर्दे निहाँ निहाँ जानते हैं.

क़ौम को थोडी ज़रुरत है, मसीहाई की,
आप तो बस की फ़ने तीर ओ कमाँ जानते हैं.

नंगे सर, नंगे बदन, उनको चले आने दो,
वोह अभी जीने के, आदाब कहाँ जानते हैं.

नहीं मअलूम किसी को, कि कहाँ है लादेन,
सब को मअलूम है कि अल्लाह मियाँ जानते हैं.

न तवानी की अज़ीयत में पड़े हैं 'मुंकिर',
है बहारों का ये अंजाम,खिज़ां जानते हैं.
*****
*मसीहाई=मसीहाई*न तवानी=दुर्बलता* अज़ीयत=कष्ट


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