Thursday, June 7, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ  

बेग़ैरत   ज़िन्दगी 

हिस्सा है खिज़िर का इसे झटके क्यों हो, 
आगे भी बढ़ो राह में अटके क्यों हो,
टपको कि बहुत तुमने बहारें देखीं,
पक कर भी अभी शाख में लटके क्यों हो.
*

फ़िकरे-गलीज़  

दिल वह्यी ओ इल्हाम से मुड जाता है, 
हक शानासियों से जुड़ जाता है,
देख कर ये पामालिए सरे-इंसान,
'मुंकिर' का दिमाग़ भक्क से उड़ जाता है. 
*
तौबः तौबः
मुंकिर की ख़ुशी जन्नत ? तौबा तौबा, 
दोज़ख से डरे गैरत तौबा तौबा, 
बुत और खुदाओं से ता अल्लुक़ इसका, 
लाहौल वला कूवत तौबा तौबा.
*

लाइलाज घुट्टी 

हो सकता है ठीक दमा, मिर्गी ओ खाज,
बख्श सकता है जिस्म को रोगों का राज,
तार्बियतों की घुट्टी पिए है माहौल, 
मुश्किल है बहुत मुंकिर ज़ेहनों का इलाज.
*

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (09-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!

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