Sunday, December 28, 2008

सुब्ह की पीड़ा



सुब्ह की पीड़ा

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

लेटे-लेटे, मैं बैठ जाता हूँ ,

ध्यान,चिंतन के यत्न करता हूं,

ग़र्क़ होना भी फिर से सोना है,

कुछ भी पाना, न कुछ भी खोना है।


सुब्ह फूटी है, नींद टूटी है,

सैर करने मैं चला जाता हूँ,

तन टहलता मन ,पे बोझ लिए,

याद आते हैं ख़ल्क़ के शैतां,

रूहे-बद साथ साथ रहती है,

मेरी तन्हाइयाँ कचरती है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

चीख उठता है भोपू मस्जिद का,

चीख उठती है नवासी मेरी,

बस अभी चार माह की है वह,

यूँ नमाज़ी को वह जगाते है,

सोए मासूम को रुलाते हैं।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

पत्नी टेलिविज़न को खोले है,

ढोल ताशे पे बैठा इक पंडा,

झूमता,गाता और रिझाता है।

आने वाले हमारे सतयुग को,

अपने कलि युग में लेके जाता है।

सुब्ह फूटी है नींद टूटी है,

किसी मासूम का करूँ दर्शन,

वरना आ जायगा मिथक बूढा,

और पूछेगा खैरियत मेरी,

घंटे घडयाल शोर कर देंगे,

रस्मी दावत अजान देदेगी.

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर

    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    चाँद, बादल और शाम

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  2. अब नींद तो टूट ही गई है तो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा.

    सही है.

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