Friday, December 19, 2008

तुम - - -


नज़्म 

तुम - - -


ख़ुद को समझ रहे हो, कि रूहे रवां1 हो तुम ,

खिलक़त2 ये कह रही है, कि उसपे गरां हो तुम ।


सब फ़ारिग़ सलात3 अभी तक अजां हो तुम ,

हर सम्त है बहार,  शिकार खिजाँ4 हो तुम ।


क्यूँ चाहते हो, अपना यकीं सब पे थोप दो ,

है भूत आस्था का, वहीं पर जहाँ हो तुम ।


फ़रदा5 की कोख में हैं, सभी हल छिपे हुए ,

माज़ी6 सवार सम्त, मुख़ालिफ़7 रवाँ हो तुम ।


सर जिस्म पर ज़रूर है, रूहों का क्या पता ?

इसका ख़याल पहले करो, नातवाँ8 हो तुम ।


शिद्दत9 है, जंग जूई10बेएतदाली11 है ,

आपस में लड़ रहे हो, जहाँ इम्तेहाँ हो तुम ।


महकूम12 गर हुए, तो रवा दारी13 चाहिए ,

कुछ और ही लगे हो, जहाँ हुक्मराँ14 हो तुम ।


कुछ ऐसे बन सको, कि तुम्हारी हो पैरवी ,

दुन्या गवाह हो, कि उरूजे-जहाँ15 हो तुम ।


'मुंकिर' जगा रहा है, उठो मर्तबा16 वालो ,

इक्कीसवीं सदी में, जहाँ है, कहाँ हो तुम


1-प्राण-वर्धक २- अन्तर राष्ट्रिय जन समूह ३-नमाज़ अदा कर चुकना ४-पतझड़ ५-आनेवाला कल ६-अतीत ७-उल्टी दिशा ८ -कमजोर
 ९-उग्रता १०-युद्धाभियान ११-असंतुलन १२-आधीन १३ -उचित बर्ताव १४-शाशक१५- दुन्या ऊपर १६-श्रेरेष्ट



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