Tuesday, July 14, 2015

Junbishen 661



 नज़्म 
शक के मोती

शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,
विश्वाश में तुम लुटते हो सदा, विश्वाश में कब तक जाना है .

शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,
औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं .

शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,
शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़२ हैं दुआ बन बैठे हैं .

शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,
जो पिए हैं ख़ून  की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं .

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब४ तो नहीं ?
जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब५ तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,
क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर६ मिले .

१-कहानी २- मिथ्य  ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

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