Monday, June 8, 2015

unbishen 646 rubai ( 6-10)

Rubsiysn

कफ़िर है न मोमिन, न कोई शैतां है,
हर रूप में, हर रंग में, बस इन्सां है,
मज़हब ने, धर्म ने, किया छीछा लेदर,
बेहतर है मुअतक़िद * नहीं जो हैवाँ  है।
*आस्थावान

मज़हब है रहे गुम पे, दिशा हीन धरम हैं,
आपस में दया भाव नहीं है, न करम हैं,
तलवार, धनुष बाण उठाए दोनों,
मानव के लिए पीड़ा हैं, इंसान के ग़म हैं।


सच्चे को बसद शान ही, बन्ने न दिया
बस साहिबे ईमान ही, बन्ने न दिया
पैदा होते ही कानों में, फूँक दिया झूट
इंसान को इंसान ही, बन्ने न दिया


ये लाडले, प्यारे, ये दुलारे मज़हब
धरती पे घनी रात हैं, सारे मज़हब
मंसूर हों, तबरेज़ हों, या फिर सरमद
इन्सान को हर हाल में, मारे मज़हब
   
हैवान हुवा क्यूँ न भला, तख्ता ए मश्क़
इंसान का होना है, रज़ाए अहमक
शैतान कराता फिरे, इन्सां से गुनाह
अल्लाह करता रहे, उट्ठक बैठक

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