ग़ज़ल
इस ज़मीं के वास्ते, मिल कर दुआ बन जाएँ हम ,
रह गुज़र इंसानियत हो, क़ाफ़िला बन जाएँ हम .
क्यों किसी नाहक की, मरज़ी की रज़ा बन जाएँ हम,
मुख़्तसर सी ज़िंदगी का, हादसा बन जाएँ हम .
रद कर दो रहनुमाई की, ये नाहक़ रस्म को ,
हो न क़ायद कोई अपना , क़ायदा बन जाएं हम .
तुम ज़रा सी ज़िद को छोडो , हम ज़रा सी आन को .
क्या से क्या बन जाए ये घर, क्या से क्या बन जाएं हम.
अब महा भारत न उपजे , न फसाद ए करबला ,
शर के बुत को तोड़ कर, अमनी फ़िज़ा बन जाएं हम.
आख़िरी ज़ीने पे चढ़ कर, राज़ हस्ती का खुला ,
इन्तेहा है क़र्ब मुंकिर, इब्तिदा बन जाएँ हम.
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