Friday, June 26, 2015

Junbishen 653 Ghazal 16




 ग़ज़ल

मख़लूक़ ए ज़माने1 की ज़रूरत को समझ ले,
बेहतर है इबादत से, तिजारत को समझ ले।

ऐ मरदे-जवान साल, तू अब सीख ले उड़ना,
माँ-बाप की मजबूर किफ़ालत२ को समझ ले।

हुजरे3 में मसाजिद के, अज़ीज़ों को मत पढ़ा,
गिलमा४ के तलब गारों की, ख़सलत को समझ ले।

बारातों, जनाजों के लिए, चाहिए इक भीड़,
नादाँ तबअ५ उनकी, सियासत को समझ ले।

मनवा के "उसे" अपने को मनवाएगा वह शेख़ ,
यह दूर कि कौडी है, नज़ाक़त को समझ ले।

'मुंकिर' हो फ़िदा ताकि बक़ा6 हाथ हो तेरे,
मशरूत7 वजूदों की, शहादत को समझ ले।

१-जन साधारण २ -पालन-पोषण ३-कमरों ४-सेवक बालक ५-सरल-स्वभाव ६-स्थायित्व ७- सशर्त

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