ग़ज़ल
पोथी समाए भेजे में, तब कुछ यकीं भी हो,
ऐ गूंगी कायनात! ज़रा नुक़ता चीं भी हो।
खोदा है इल्मे नव ने, अक़ीदत के फर्श को,
अब अगले मोर्चे पे, वह अर्शे बरीं2 भी हो।
साइंस दाँ हैं बानी, नए आसमान के,
पैग़म्बरों के पास ही, इन की ज़मी भी हो।
ऐ इश्तेराक़3 ठहर भी, जागा है इन्फ़्राद4,
कहता है थोडी पूँजी, सभी की कहीं भी हो।
बारूद पर ज़मीन , हथेली पे आग है,
है अम्न का तक़ाज़ा, कि हाँ हो, नहीं भी हो।'
'मुंकिर' भी चाहता है, सदाक़त5 पे हो फ़िदा,
इन्साफ़ो आगाही6 को लिए, तेरा दीं7 भी हो।
२-सातवाँ आसमान ३-साम्यवाद ४-व्यक्तिवाद ५-सच्चाई ६न्याय एवं विज्ञप्ति ७-धर्म
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