Thursday, October 30, 2014

Junbishen 247



गज़ल

हर गाम रब के डर से सिहरने लगे हैं ये,
खुद अपनी बाज़ ए गश्त से डरने लगे हैं ये। 

गर्दानते हैं शोखी के लम्हात को गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं ये। 

रूहानी पेशवा हैं कि खुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं ये. 

हैं इस लिए ख़फ़ा, मैं कभी नापता नहीं,
वह कार ए ख़ैर जिसको कि करने लगे हैं ये। 

खुद अपने जलवा गाह की पामालियों के बाद ,
हर आईने पे रुक के संवारने लगे हैं ये। 

मुंकिर ने फेंके टुकड़े ख़यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के ठहेरने लगे हैं ये. 

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