गज़ल
हक की बातें ही नहीं करते हैं,
हक तलफ़ गर हों, बहुत डरते हैं .
वज्न को ख़त्म किया दौलत ने ,
पाँव धरती पे नहीं धरते हैं .
घर की दीवारें दरक जाएंगी ,
बात धीमे से किया करते हैं .
सजती धज्ती हैं जतन से परियाँ ,
ये है लाज़िम कि जवाँ मरते हैं .
जाम भरते हैं ख़ुद अपने सर में ,
सर निजामों से मेरा भरते हैं .
एक मुंकिर के सिवा बाक़ी सब ,
तेरे जन्नत की रविश चरते हैं .
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