Thursday, October 9, 2014

Junbishen 238



गज़ल

हक की बातें ही नहीं करते हैं,
हक तलफ़ गर हों, बहुत डरते हैं . 

वज्न को ख़त्म किया दौलत ने ,
पाँव धरती पे नहीं धरते हैं .

घर की दीवारें दरक जाएंगी ,
बात धीमे से किया करते हैं .

सजती धज्ती हैं जतन से परियाँ ,
ये है लाज़िम कि जवाँ मरते हैं .

जाम भरते हैं ख़ुद अपने सर में ,
सर निजामों से मेरा भरते हैं .

एक मुंकिर के सिवा बाक़ी सब ,
तेरे जन्नत की रविश चरते हैं .


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