गज़ल
मंजिल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद ओ सलाम हो.
गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो.
इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा ,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो.
माल ओ मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें ,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो.
कुछ इस तरह से फतह, हमें मौत पर मिले,
सुकराती एतदाल हो, मीरा का जाम हो.
कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अकीदा हराम हो.
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