ग़ज़ल
रहबर ने पैरवी का जुनूं ,यूँ बढा लिया,
आखें जो खुली देखीं तो, तेवर चढा लिया।
तहकीक़ ग़ोर ओ फ़िक्र, तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो हाथ लगा, वह उठा लिया।
शोध और आस्था में, उन्हें चुनना एक था,
आसान आस्था लगी, सर में जमा लिया।
साधू को जहाँ धरती के, जोबन ज़रा दिखे,
मन्दिर बनाया और, वहीँ धूनी रमा लिया।
पाना है गर ख़ुदा को, तो बन्दों से प्यार कर,
वहमों कि बात थी ये, ग़नीमत कि पा लिया।
"मुकिर" की सुलह भाइयों से, इस तरह हुई,
खूं पी लिया उन्हों ने, ग़म इस ने खा लिया.
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