Saturday, September 28, 2013

junbishen 79

नज़्म 
रोड़े फ़रोश 

दूर पंडितों से रह,मुर्शिदों से बच के चल,
हट के इनकी राह से अपनी रहगुज़र बदल।

धर्मों के दलाल हैं, ये मज़हबों के जाल हैं,
शब्द बेचते हैं यह, और मालामाल हैं .

इनके दर पे ग़ार है , रास्तों में ख़ार है, 
बाहमी ये एक हैं, देव बे शुमार हैं .

घुन हैं यह समाज के,खा रहे हैं फ़स्ल को .
कातिलान ए मोहतरम, जप रहे हैं नस्ल को .

इनकी महफ़िलों में हैं, बे हिसी की लअनतें,
खोखली हैं आज तक, बज़्म की सदाक़तें .

इर्तेक़ा के पांव में, डाले हैं यह बेड़ियाँ ,
इनकी धूम धाम में, गुम सी हैं तरक़्क़ियाँ  

मज़हबी इमारतें, हासिल ए मुआश हैं,
मकर की ज़ियारतें, झूट की तलाश हैं।

खा के लोग मस्त हैं, पुर फरेब गोलियाँ ,
पढ़ रहे हैं सब यहाँ, तोते जैसी बोलियाँ .

खैर कुछ नहीं यहाँ, गर है कुछ शर ही शर,
खुद में बस कि ऐ बशर, तू ज़रा सा सज संवर।

इनके आस्ताँ पे तू , बस कि मह्व ख़ाब है,
न कहीं सवाब है , न कहीं अज़ाब है।

इन से दूर रह के तू , सच की राह पाएगा ,
इनके हादसात से, अपने को बचाएगा .

मुंकिरी निसाब बन, अपनी इक किताब बन,
खुद में आफ़ताब बन, खुद में माहताब बन।

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