कभी कभी तो मुझे तू निराश करता है,
मेरे वजूद में खुद को तलाश करता है.
मेरे वजूद का खुद अपना एक परिचय है,
सुधारता नहीं तू इस को लाश करता है.
किसी इलाके के थोड़े विकास के खातिर,
बड़ी ज़मीन का तू सर्वनाश करता है.
मैं होश में हूँ हजारों कटार के आगे,
तुहारे हाथ का कंकड़ निराश करता है.
निसार जाँ से तेरी इस लिए अदावत है,
तेरे खुदाओं का वोह पर्दा फाश करता है.
नशा हो शक्ति का या हो शराब का 'मुंकिर" ,
नशे की शान है वोह सर्व नाश करता है.
*****
सुन्दर गज़ल....
ReplyDeleteसादर...