Monday, October 17, 2011

ग़ज़ल - - - तरस न खाओ मुझे प्यार कि जरूरत है


तरस न खाओ मुझे प्यार कि जरूरत है,
मुशीर कार नहीं यार कि ज़रुरत है.
 
तुहारे माथे पे उभरे हैं सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.
 
कलम कि निब ने कुरेदा है ला शऊर तेरा,
जवाब में कहाँ तलवार की ज़रुरत है.
 
अदावतों को भुलाना भी कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.
 
शुमार शेरों का होता है, न कि भेड़ों का,
कसीर कौमों बहुत धार की ज़रुरत है.
 
तुम्हारे सीनों में आबाद इन किताबों को,
बस एक "मुंकिर" ओ इंकार कि ज़रुरत है.
*****

6 comments:

  1. तुहारे माथे पे उभरे हैं सींग के आसार,
    तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है'
    ...........behtareen sher.
    ...........umda gazal.

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  2. उम्दा गजल... आपके ब्लॉग से जुड़ रहा हूं
    http://aakarshangiri.blogspot.com

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  3. बहुत उम्दा गज़ल....
    सादर बधाई...

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  4. आप सबों का शुक्र गुज़ार हूँ , आभारी भी .

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