आप वअदों की हरारत को कहाँ जानते हैं.
हम जो रखते हैं वह पत्थर की ज़ुबान जानते हैं.
पुरसाँ हालों को बताते हुए मेरी हालत,
मुस्कुराते हैं, मेरा दर्दे निहाँ निहाँ जानते हैं.
क़ौम को थोडी ज़रुरत है मसीहाई की,
आप तो बस की फने तीर ओ कमाँ जानते हैं.
नंगे सर, नंगे बदन उनको चले आने दो,
वोह अभी जीने के आदाब कहाँ जानते हैं.
नहीं मअलूम किसी को कि कहाँ है लादेन,
सब को मअलूम है कि अल्लाह मियाँ जानते हैं.
न तवानी की अज़ीयत में पड़े हैं "मुंकिर",
है बहारों का ये अंजाम खिजां जानते हैं.
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*मसीहाई=मसीहाई*न तवानी=दुर्बलता* अज़ीयत=कष्ट
नंगे सर, नंगे बदन उनको चले आने दो,
ReplyDeleteवोह अभी जीने के आदाब कहाँ जानते हैं.
सुभान अल्लाह...क्या ग़ज़ल कही है...बेजोड़.
नीरज
लाजवाब गज़ल कही है आपने.... वाह बहुत उम्दा...
ReplyDeleteसादर....