Monday, September 19, 2011

ग़ज़ल - - -ये जम्हूरियत बे असर है


ये जम्हूरियत बे असर है,
संवारे इसे, कोई नर है?
 
बहुत सोच कर खुद कशी कर,
किसी का तू नूरे नज़र है.
 
दिखा दे उसे क़ौमी दंगे,
सना ख्वान मशरिक किधर हैं.
 
बहुत कम है पहचान इसकी,
रिवाजों में डूबा बशर है.
 
नहीं बन सका फर्द इन्सां,
कहाँ कोई कोर ओ कसर है.
 
है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.
 
इबादत है रोज़ी मशक्क़त,
अजान ए कुहन पुर ख़तर है.
 
ये सोना है जागने की मोहलत,
जागो! ज़िन्दगी दांव पर है.
 
है तकलीद बेजा ये "मुंकिर",
तेरे जिस्म पर एक सर है.
*****
*जम्हूरियत=गण-तन्त्र *नूरे नज़र=आँख का तारा *सना ख्वान मशरिक=पूरब का गुण-गण करने वाले*खला, नफ़ी=क्षितिज एवं शून्य * तकलीद=अनुसरण
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1 comment:

  1. है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
    खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.
     
    इबादत है रोज़ी मशक्क़त,
    अजान ए कुहन पुर ख़तर है.

    सुभान अल्लाह...भाई वाह...क्या बेहतरीन शेर कहें हैं आपने...पूरी ग़ज़ल कमाल की है...मेरी दिली दाद कबूल करें.

    नीरज

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