ग़ज़ल
दाग़ सारे धुल गए तो, इस जतन से क्या हुवा,
थोड़ा सा पानी भी रख, ऐ दूध का धोया हुवा।
ज़ेहनी बीमारी पे शक करना है, जैसे फ़र्दे जुर्म,
अंधी और बहरी अकीदत, पे है हक़ रोया हुवा।
थी सदा पुर जोश कि, जगते रहो, जगते रहो,
डाकुओं की सरहदों पर, होश था खोया हुवा।
लगजिशों की परवरिश में, पनपा काँटों का शजर,
बच्चों पर इक दिन गिरेगा, आप का बोया हुवा।
उसकी आबाई किताबों, से जो नावाक़िफ़ हुवा,
देके जाहिल का लक़ब, उस से ख़फ़ा मुखिया हुवा।
भीड़ थामे था अक़ीदत, का मदारी उस तरफ़,
था इधर तनहा मुफ़क्किर* इल्म पर रोया हुवा।
*बुद्धि जीवी
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