Friday, December 18, 2015

Junbishen 726




 ग़ज़ल
है नहीं मुनासिब ये, आप मुझ को तडपाएँ,
ज़लज़ला न आने दें, मेह भी न बरसाएं।

बस कि इक तमाशा हैं, ज़िन्दगी के रोज़ ओ शब,
सुबह हो तो जी उठ्ठें, रात हो तो मर जाएँ।

आप ने ये समझा है ,हम कोई खिलौने हैं,
जब भी चाहें अपना लें, जब भी चाहें ठुकराएँ।

भेद भाव की बातें, आप फिर लगे करने,
आप से कहा था न, मेरे धर पे मत आएं।

वक़्त के बडे मुजरिम, सिर्फ धर्म ओ मज़हब हैं,
बेडी इनके पग डालें, मुंह पे टेप चिपकाएँ।

तीसरा पहर आया, हो गई जवानी फुर्र,
बैठे बैठे "मुंकिर" अब देखें, राल टपकाएं.

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