ग़ज़ल
काँटों की सेज पर, मेरी दुन्या संवर गई,
फूलों का ताज था वहां, इक गए चार गई।
रूहानी भूक प्यास में, मैं उसके घर गया,
दूभर था सांस लेना, वहां नाक भर गई।
वोह साठ साठ साल के, बच्चों का था गुरू,
सठियाए बालिगान पे, उस की नज़र गई।
लड़ के किसी दरिन्दे से, जंगल से आए हो?
मीठी जुबान, भोली सी सूरत, किधर गई?
नाज़ुक सी छूई मूई पे, क़ाज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के, ग़ैरत से मर गई।
सोई हुई थी बस्ती, सनम और खुदा लिए,
"मुंकिर" ने दी अज़ान तो, इक दम बिफर गई,
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