Monday, November 30, 2015

Junbishen 719



 ग़ज़ल

मक्का सवाब है, न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का, सफ़ीना सवाब है।

बे खटके हो हयात, तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो, तो पीना सवाब है।

माथे पे सज गया तो, पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ, दफ़ीना सवाब है।

भूलो यही है ठीक, कि बद तर है इन्तेक़ाम,
बुग्ज़ ओ, हसद, निफ़ाक़, न क़ीना सवाब है।

जागो ऐ नव जवानो! क़नाअत हराम है,
जूझो, कहीं, ये नाने शबीना सवाब है?

"मुंकिर" को कह रहे हो, दहेरया है दोजखीदोज़खी  ,
आदाब ओ एहतराम, क़रीना सवाब है।

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

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