नज़्म
ख्वाहिशे पैग़म्बरी
जी में आता है कि मैं भी, इक ख़ुदा पैदा करुँ।
पहले जैसों ही, सदाक़त1 में रिया2 पैदा करुँ ।
कुछ ख़ता पैदा करुँ , फ़िर कुछ सज़ा पैदा करुँ ,
मौत से पहले ही इक, यौमे जज़ा3 पैदा करुँ ।
आऊँ और जाऊं पहाडों पर, निदा4 के वास्ते ,
वह्यी5 सी, या देव वाणी सी, सदा पैदा करुँ ।
गढ़ के इक हुलया निकालूँ , ख़ुद को इस मैदान में ,
सब से हट कर इक अनोखी ही अदा पैदा करुँ ।
मुह्मिलों6 में फ़लसफ़े रागमाले डालकर ,
आश्रम में रख के, अपना बुत गिज़ा पैदा करुँ ।
उफ़! कि दिल क़ैद खाने में है 'मुनकिर' का ज़मीर ,
कैसे मासूमों के ख़ातिर, मैं दग़ा पैदा करुँ ।
बहुत ही सुन्दर सार्थक ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteशर्म आती है मुझे इस आदमक़दी पर..,
ReplyDeleteकितना गिर गया हूँ मैं आदमी हो के.....