Wednesday, July 13, 2016

Junbishen 815





ग़ुबार 

कुछ फ़ी सदी तरक्क़ी , हिदोस्तां की यारों ,
धर्मों ने खा लिया है , मज़हब ने पी लिया है .
लम्हे मशक़्क़तों के , बर्बाद हो रहे हैं ,
सजदों में जा रहे हैं , घन्टे बजा रहे हैं. 

ज्योतिष पे न्यूँ डाले , हर झूट को संभाले ,
तंजीमें बन रही हैं , ज़हरें उगल रही हैं .
टी वी के चैनलों पर ये राम भरोसे हैं ,
विज्ञानी थालियों में , अज्ञान परोसे हैं .

बनते जगत गुरु हैं , दुन्या में ज़र्द रू हैं . 
इनके शरण न जाओ, पहचान अपनी पाओ .
धर्मो का विष त्यागो , धर्मो से दूर भागो .
सच के गगन पे छाओ , विज्ञान को निभाओ .

धरती के कुछ नियम हैं , ये धर्म बस भरम हैं .
खुद अपने में बशर है ,सब खुद पे मुनहसर है .
मज़हब है एक साज़िश , समझो मेरी गुज़ारिश ,
बाहर से ये भले हैं , अन्दर से खोखले हैं .

धर्मी मेरे अमल हों , सच्चाई पर अटल हों ,
लालच न फ़ायदे हों ,डर हो न दबदबे हों .
हम ऐसे मुस्कुराएँ , मुजरिम न खुद को पाएँ 
हर चेहरे पर ख़ुशी हो , आबाद ज़िन्दगी हो .

गर अपना देश भारत धर्मों से पाक होता ,
पश्चिम हमारे आगे जूती की खाक होता .
होती गराँ न रोटी , छत और ये लंगोटी .
मय नोश हम भी होते , बा होश हम भी होते .

शीशे के घर में रहते , ये मुफ़लिसी न सहते .
तालीम होती लाज़िम , हम होते सब मुलाजिम .
घर बिजली मुफ़्त होती , हम को भी कार ढोती .
पाखंड न राज करता , सच सजता और संवरता .

दहकाँ शबाब पाता , मज़दूर गुनगुनाता ,
जोगी ये नर न बनता , मज़मून पर निखरता ,
न गुंडा राज होता , सच्चे पे ताज होता .
धर्मो ने मार डाला , मज़हब ने डाका डाला .

ऐ साकिनान भारत , थोड़ी सी ही जिसारत ,
है वक़्त जाग जाओ , मत झूट को निभाओ ,
अमरीका मुन्तज़िर है , योरोप को आस फिर है ,
तुम पूरे सो जो जाओ , बस धर्म को बचाओ ,
वह तुम को जाम कर दें , फिर से ग़ुलाम कर दें .

غبار  
کچھ فی صدی تراققی ، ہندوستاں ہی یارو 
دھرموں نے کھا لیا ہے ، مذہب نے پی لیا ہے ٠ 
لمحے مشققتوں کے برباد ہو رہے ہیں  
سجدوں لوگ غلطاں ، گھنٹے بجا کے مستاں ٠ 
جیوتش پہ نیوں ڈالے ، ہر جھوٹ کو سنبھالے 
دھرموں کا آگمان ہے ، آبھاس کا ندھن ہے ٠ 
ٹی وی کے چینلوں پر ، بھگوان کے بھروسے 
وگگیانی تھالیوں میں ، اگگیاں کو پر وسے ٠ 
کردار کچھ نہیں ہے ، معیار کچھ نہیں ہے 
بنتے جگت گرو ہیں ، دنیا میں زرد رو ہیں ٠ 
اب نہ کبیر ہوگا ، کوئی نہ ویر ہوگا 
مذہب ہے ایک سازش ، انسانیت پہ خارش٠ 
دھرتی کے کچھ نیم ہے ، یہ دھرمباس بھرم ہیں٠ 
*
خود اپنے پہ بشر ہے ، سب خود پہ منحصر ہے 
دین و دھرم نہ ہوتے ، پھوٹے کرم نہ ہوتے٠ 
انکے شرن نہ جاؤ ، پہچان اپنی پاؤ 
دھرموں زہر تیاگو ، مذہب سے دور بھا گو٠ 
دھرمی میرے عمل ہوں ، سچائی پر اٹل ہوں
لالچ نہ فائدے ہوں ، ڈر ہوں نہ دبدبے ہوں٠ 
ہم ایسے مسکرایں ، مجرم نہ خود کو پایں٠ 
گر اپنا دیش بھارت ، دھرموں سے پاک ہوتا
پشچم ہمارے آگے جوتی کی خاک ہوتا٠ 
ہوتی نہ دور روٹی ، دکھتی نہ یہ لنگوٹی 
اے سی میں ہم بھی سوتے ، سب کے فلیٹ ہوتے٠ 
مے نوش ہم بھی ہوتے ، با ہوش ہم بھی ہوتے 
شیشوں کے گھر میں رہتے ، یہ مفلسی نہ سہتے٠ 
یہ بجلی مفت ہوتی ، ہم کو بھی کار ڈ ھوتی 
تعلیم ہوتی لازم ، سب ہوتے پھر ملازم٠ 
*



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