Monday, July 4, 2016

Junbishen 810




ग़ज़ल 
मय्यत का मेरी आग या दरिया हो ठिकाना ,
तुम खाता बही लेके मियाँ क़ब्र में जन. 

पहले तो वज़ू और रुकुअ तक ही फसाना ,
मैं फंस जो गया तो मुझे उंगली पे नचाना .

इंसान का है ज़िक्र मवेशी का नहीं है ,
लाखों को हांकता है यहाँ फ़र्द ए सयाना .

है गिलमा के तोहफ़े की तलब गार इमामत ,
हुजरे में मसाजिद के न बच्चों को पढ़ना .

अपनी ख़ुशी के रोड़े हटा ले तो मैं चलूँ ,
जिन रास्तों पर चलने को कहता है ज़माना .

अल्ला मियां की ज़ात घसीटे है बहस में ,
दर अस्ल मेरी ज़ात है ज़ाहिद का निशाना 

غزل 

میّت کا میری آگ یا، دریہ ہو ٹھکانا 
تم کھاتا بہی لیکے، میاں قبر میں جانا .

پہلے تو وضو اور رقوع، تک ہی پھسانا 
میں پھنس جو گیا تو، مجھے انگلی پہ نچانا 

یہ ذکر ہے انساں ، مویشی کا نہیں ہے 
لاکھوں کو ہانکتا ہے، یہاں فرد سیانا 

ہے غلمه کے تحفہ کی، طلب گار امامت 
حجرے میں مساجد کے، نہ بچوں کو پڑھانا 

اپنی خوشی کے روڑے، ہٹا لے تو میں چلووں
جن راستوں پہ چلنے کو، کہتا ہے زمانہ 

اللہ میاں کی ذات، گھسیٹے ہے بحث میں 
منکر کی ذات ، ورنہ ہے زاہد کا نشانہ 

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