Thursday, August 21, 2014

Junbishen 229


गज़ल

कम ही जानें कम पहचानें, बस्ती के इंसानों को,
वक़्त मिले तो आओ जानें, जंगल के हैवानों को.

अश्के गराँ जब आँख में  आएँ, मत पोछें मत बहने दें,
घर में फैल के रहने दें, पल भर के मेहमानों को.

भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.

मुर्दा बाद किए रहती हैं, धर्म ओ मज़ाहिब की जंगें,
क़ब्रस्तनों की बस्ती को, मरघट के शमशानों को.

सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.

बंदिश हम पर ख़त्म हुई है, हम बंदिश पर ख़त्म हुए,
"मुंकिर" कफ़न की गाठें खोलो, रिहा करो बे जानो को.

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