Tuesday, July 29, 2014

Junbishen 220


गज़ल

क़हेरो-गज़ब के डर से सिहरने लगे हैं वह,
ख़ुद अपनी बाज़े-गश्त से डरने लगे हैं वह।

गर्दानते हैं शोख़ अदाओं को वह गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं वह।

रूहानी पेशवा हैं, या ख़ुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं वह।

हैं इस लिए खफा, मैं कभी नापता नहीं,
वह काम नेक, जिसको कि करने लगे हैं वह।

ख़ुद अपनी जलवा गाह की पामालियों के बाद,
हर आईने पे रुक के सँवारने लगे हैं वह।

"मुंकिर" ने फेंके टुकड़े, ख्यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के, ठहरने लगे हैं वह।

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