Saturday, September 29, 2012

रुबाइयाँ



रुबाइयाँ 



तहरीक ए सदाक़त हो दिलों में पैदा, 
तबलीग़  ए जिसारत हो दिलों में पैदा, 
समझा दो ज़माने को खुदा भी बुत है, 
फ़ितरत की अक़ीदत को दिलों में पैदा. 

मुझको क्या कुछ, समझा बूझा है तुमने, 
या अपने ही जैसा, जाना तुमने, 
मेरे ईमान में फ़र्क लाने का ख़याल, 
चन्दन पे है गोया, साँप पाला तुमने. 

फिर धर्म के पाखंड पे, भारत है रवाँ, 
खो दे न तवानाई, तरक़क़ी ये जवाँ, 
बढ़ चढ़ के दिमाग़ों में है मज़हब की अफ़ीम, 
हुब्बुल बतानी का जज़्बा है कहाँ. 

दिल चाहता है, जिस्म थका, फिर हो जवाँ, 
खूँ नाब में, परियों की अदा, फिर हो जवाँ, 
कुछ ऐसा मुअज्ज़ा हो कि लौट आए जवानी, 
मय, जाम, सुबू, साग़र ओ साक़ी का जहाँ हो, 

रोज़ों का असर देखो कि कुछ काम आया, 
वह ईद के मौके पे लबे-बाम आया. 
आदाब की झंकार, सिवइयों के साथ, 
मुज्दः ! कि वह पलकों पे रखे जाम आया. 

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