ज़ाहिद मैं तेरी राग में हरगिज़ न गाऊँगा,
हल्का सा अपना साज़ अलग ही बनाऊँगा।
तू मेरे हल हथौडे को मस्जिद में लेके चल,
तेरे खुदा को अपनी नमाज़ें दिखाऊँगा।
सोहबत भिखारियों की अगर छोड़ के तू आ,
मेहनत की पाक साफ़ गिज़ा मैं खिलाऊँगा।
तुम खोल क्यूँ चढाए हो अख़लाक़यात के,
हो जाओ बेलिबास, मैं आखें चुराऊँगा।
ए ईद! तू लिए है खड़ी इक नमाज़े-बेश,
इस बार छटी बार मैं पढने न जाऊँगा।
खामोश हुवा चौदह सौ सालों से खुदा क्यूँ,
अब उस की जुबां सच की सदा से खुलाऊँगा .
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