तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढे हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढे हो तुम?
कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?
बस्ती है डाकुओं की यहाँ लूट के खिलाफ,
तकरीर ही गढे, कि जिसरत गढे हो तुम?
अल्फाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाजारे हादसात में, कितने कढे हो तुम।
इंसानियत के फल हों, इन धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।
"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.
शिकस्ता पाई=सुस्त चाल
बेहतरीन गज़ल...
ReplyDeleteशानदार गजल...
ReplyDeleteइंसानियत के फल हों, इन धर्मों के पेड़ में,
ReplyDeleteये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।
SUBHAN ALLAH...BHAI ZAAN KMAAL KI GHAZAL KAHI HAI AAPNE...DHERON DAAD KABOOL KAREN.
NEERAJ