Sunday, March 11, 2012

ग़ज़ल - - - मक्का सवाब है न मदीना सवाब है




मक्का सवाब है न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का सफीना सवाब है। 


बे खटके हो हयात तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो तो पीना सवाब है। 


माथे पे सज गया तो पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ दफीना सवाब है। 


भूलो यही है ठीक कि बद तर है इन्तेकाम,
बुग्जो, हसद, निफाक, न कीना सवाब है। 


जागो ऐ नव जवानो! कनाअत हराम है,
जूझो, कहीं ये नाने शबीना सवाब है? 


"मुंकिर" को कह रहे हो दहेरया है दोजखी,
आदाब ओ एहतराम, करीना सवाब है। 

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

No comments:

Post a Comment