Sunday, March 4, 2012

ग़ज़ल - - - अपने ही उजाले में जिए जा रहा हूँ मैं


अपने ही उजाले में जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को पिए जा रहा हूँ मैं.


होटों को सिए हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के किए जा रहा हूँ मैं। 


मज़हब के हादसों पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को जिए जा रहा हूँ मैं।


इक दिन ये जनता लूटेगी धर्मों कि दुकानें, 
इसको दिया जला के दिए जा रहा हूँ मैं।


फिर लौट के आऊंगा कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को लिए जा रहा हूँ मैं।


फिर फाड़ना न अब ये सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का गरेबान सिए जा रहा हूँ मैं. 

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