ये तसन्नो में डूबा हुवा प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर मुफ़्त दरकार है.
फैली रूहानियत की वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद आज़ार है.
बुद्धि हाथों पे सरसों उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे ये चमत्कार है.
मुज़्तरिब हर तरफ़ सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई किसकी सरकार है.
बाँटता फिर रहा है वो पैगामे मौत,
भीड़ साकित है, जैसे तलबगार है.
एक झटके में जोगी कहीं जा के मर,
क़िस्त में मौत तेरी ये बेकार है.
हों न "मुंकिर" इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना, वोह मदद गार है.
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*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.
फैली रूहानियत की वबा क़ौम में,
ReplyDeleteजिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद आज़ार है.
एक झटके में जोगी कहीं जा के मर,
क़िस्त में मौत तेरी ये बेकार है.
मेरी ख्वाइश तो पूरी की पूरी ग़ज़ल यहाँ कोट करने की थी क्यूँ की इस लाजवाब ग़ज़ल का कोई शेर दुसरे से कम नहीं है...बेहतरीन लफ्ज़ और बेहतरीन ज़ज्बा...ढेरों दाद कबूल करें मुंकिर भाई...
बहुत सुन्दर भावप्रणव रचना!
ReplyDeleteबहुत उम्दा... हर शेर बीस...
ReplyDeleteसादर...
आप सब का आभार.
ReplyDeleteशुक्रिया, शुक्रिया