यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.
लग रहा खा रहे नेमत.
बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.
कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.
सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.
सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.
धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.
माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.
हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
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*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर
हो गया हादसा आखिर,
ReplyDeleteहो गई थी ज़रा हफ्लत.
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत
sunder rachna hai....
यह गलाज़त भरी रिशवत,
ReplyDeleteलग रहा खा रहे नेमत.
बेहतरीन।
वाह वाह जुनैद भाई वाह! छोटी बहर में बड़ी ग़ज़ल!
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