Wednesday, May 6, 2009

ग़ज़ल - - - यह गलाज़त भरी रिशवत

यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.

बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.

कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.

सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.

सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.

धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.

माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.

हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.

खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

3 comments:

  1. हो गया हादसा आखिर,
    हो गई थी ज़रा हफ्लत.

    खा सका न वोह 'मुंकिर",
    खा गई उसे है उसे दौलत
    sunder rachna hai....

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  2. यह गलाज़त भरी रिशवत,
    लग रहा खा रहे नेमत.


    बेहतरीन।

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  3. वाह वाह जुनैद भाई वाह! छोटी बहर में बड़ी ग़ज़ल!

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