ग़ज़ल
महरूमियाँ सताएं न, नींदों की रात हो,
दिन बन के बार गुज़रे न ऐसी नजात हो।
हाथों की इन लकीरों पे, मत मारिए छड़ी,
उस्ताद मोहतरम, ज़रा शेफ्क़त का हाथ हो।
यह कशमकश सी क्यूं है, बग़ावत के साथ साथ,
पूरी तरह से देव से, छूटो तो बात हो।
कुछ तर्क गर करें, तो सुकोनो क़रार है,
ख़ुद नापिए कि आप की, कैसी बिसात हो।
उंगली से छू रहे हैं, तसव्वर की माहे-रू,
मूसा की गुफ़्तुगु में, खुदाया सबात हो।
इक गोली मौत की मिले 'मुंकिर' हलाल की,
गर रिज़्क1 का ज़रीया2 मदद हो, ज़कात3 हो।
१-भरण-पोषण २-साधन ३-दान
हर सिम्त शतरंज की है बाजियाँ लगी हुईं..,
ReplyDeleteवफा की शह पर बेवफाई की मात हो.....
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत खूब ,आप मेरे ब्लोग्स का भी अनुशरण करें ,ख़ुशी होगी
ReplyDeletelatest post भक्तों की अभिलाषा
latest postअनुभूति : सद्वुद्धि और सद्भावना का प्रसार
हर ऱोजबद नजात है, हूँ मरता मैं अपनी मौत..,
ReplyDeleteसुबहो मशरूफियत तो शब में नींद उठाइ मुझे.....
रोजे-बद-नजात = बुरा और क़यामत का दिन