Saturday, April 21, 2012

ग़ज़ल -सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के फहेम के देते हो ताने



सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फहेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।


लम यालिद वलं यूलाद, तुम हम जैसे मखलूक नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?


कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।


कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफसीर निगरो! "बड बड में भर के माने।


आज नमाजें, रोजे, हज, खैरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, गैरत, इज्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।


बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फुर्सत सुनने की अब, फ़लक ओ हशर के अफ़साने।


कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बहार है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।
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नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

1 comment:

  1. बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
    कहाँ है फुर्सत सुनने की अब, फ़लक ओ हशर के अफ़साने ...

    पहले कुछ शरों का मतलब नहीं समक्झ आया .. पर इस शेर का मतलब कुछ समझ आया .. और जितना सनाझ आया इसी के आधार पे कहता हूँ ... काफिरी में जो मज़ा है किसी और बात में नहीं ... मुंकिर जी ..

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