रिश्ता नाता कुनबा फिरका सारा जग ये झूठा है,
जुज्व की नदिया मचल के भागी कुल का सागर रूठा है।
ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग नहीं तो फूटा है।
बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।
चिंताओं का चिता है मानव, मंसूबों का बंधन है,
बिरला पंछी फुदके गाए, रस्सी है न खूटा है।
सुनता है वह सारे जग की, करता है अपने मन की,
सीने के भीतर रहता है मेरा यार अनूठा है।
लिखवाई है हवा के हाथों, माथे पर इक रह नई,
"मुंकिर" सब से बिछड़ गया है, सब से रिश्ता टूटा है।
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vaah bahut bejod kavita likhi hai badhaai ke paatr hain aap.
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