Wednesday, September 14, 2016

Junbishen 747



ग़ज़ल

हक की बातें ही नहीं करते हैं,
हक तलफ़ गर हों, बहुत डरते हैं . 

वज्न को ख़त्म किया दौलत ने ,
पाँव धरती पे नहीं धरते हैं .

घर की दीवारें दरक जाएंगी ,
बात धीमे से किया करते हैं .

सजती धज्ती हैं जतन से परियाँ ,
ये है लाज़िम कि जवाँ मरते हैं .

जाम भरते हैं ख़ुद अपने सर में ,
सर निजामों से मेरा भरते हैं .

एक मुंकिर के सिवा बाक़ी सब ,
तेरे जन्नत की रविश चरते हैं .

غزل 

حق کی باتیں ہی نہیں کرتے ہیں 
حق تلف گر ہوں ، بہت ڈرتے ہیں 

وزن کو ختم کیا دولت نے
پانوں دھرتی پہ نہیں دھرتے ہیں 

گھر کی دیواریں درک جاینگی 
دھیمے دھیمیں وہ بات کرتے ہیں 

سجتی دھجتی ہیں جتن سے پریاں 
یہ ہے لازم کہ جواں مرتے ہیں 

جام بھرتے ہیں خود اپنے سر میں 
سر میں میرے نظام بھرتے ہیں

ایک منکر کے سوا باقی سب 
تیری جنّت کی گھاس چرتے ہیں 


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