Tuesday, November 11, 2014

Junbishen 252



गज़ल

आगही सो गई है डेरे में ,
है वह नागाह तेरे मेरे में .    

थक गया करवटों से महलों की ,
आओ मिल कर जिएँ बसेरे में ,

ज़ायक़ा कुछ क़िनात का चक्खें         
क्या धरा है हवस के ढेरे में .

ऐ मुआलिज इलाज कर अपना ,
मुब्तिला तू है ज़र के फेरे में .

एक बूढ़े के आँख में आँसू ,
आग लग जाएगी जज़ीरे में .

 लअनतें बे असर हुईं वाइज़ ,
है ये 'मुंकिर' जज़ा के घेरे में . 

1 comment:

  1. कल दम-गज़र फिर चराग़ सहर हुवा..,
    अपनी शरअ को ढूंडता अँधेरे में.....

    शरअ = सही राह

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