Saturday, February 2, 2013

ग़ज़ल - - - बज़ाहिर मेरे हम नवा पेश आए



बज़ाहिर मेरे हम नवा पेश आए,
बड़े हुस्न से कज अदा पेश आए।

मेरे घर में आने को बेताब हैं वह,
रुके हैं कोई हादसा पेश आए।


हजारों बरस की विरासत है इन्सां,
 ,

न खूने बशर की नदा1 पेश आए।

ये कैसे है मुमकिन इबादत गुज़ारो!
नवालों को लेकर दुआ पेश आए।

मुझे तुम मनाने की तजवीज़ छोडो,
जो माने न वह तो कज़ा2 पेश आए।

खुदा की मेहर ये, वो शैतां की हरकत,
कि "मुंकिर" कोई वाक़ेआ पेश आए।

१-ईश-वाणी २-मौत

1 comment:

  1. गर मासूम हूँ तो रखो मुझको मुवल्लिफ़..,
    मुजरिम को ऐ मुंसिफ सजा पेश आए.....

    ReplyDelete