Friday, August 24, 2012

रुबाइयाँ


रुबाइयाँ

पीटते रहोगे ये लकीरें कब तक?
याद करोगे माज़ी की तीरें कब तक,
मुस्तकबिल पामाल किए हो यारो,
हर हर महादेव, तक्बीरें कब तक?
*

माद्दा परस्ती में है बिरझाई हुई,
नामूस ए खुदाई पे है ललचाई हुई,
इंसानी तरक्की से कहो जल्द मरे,
है आलम ए बाला से खबर ई हुई.
*

मोमिन ये भला क्या है, दहरया क्या है,
आला है भला कौन, ये अदना क्या है,
देखो कि मुआश का क्या है ज़रीआ?
जिस्मों में रवां खून का दरिया क्या है?
*

सब कुछ यहीं ज़ाहिर है, खुला देख रहे हो,
क़ुदरत लिए हाज़िर है, खुला देख रहे हो,
बातिन में छिपाए है, वह इल्मे- नाक़िस,
वह झूट में माहिर है खुला देख रहे हो,
*

छाई है घटाओं की बला, आ जाओ,
हल्का सा तबस्सुम ही सही, गा जाओ,
गर चाहो तो, हो जाओ ज़रा दरया दिल,
प्यासों पे घटाओं की तरह छा  जाओ.
*

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (26-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  2. रुबाईयत का आपकी अंदाज़ निराला देखा ,बढ़िया रुबाई ,...... .कृपया यहाँ भी पधारें -
    शनिवार, 25 अगस्त 2012
    काइरोप्रेक्टिक में भी है समाधान साइटिका का ,दर्दे -ए -टांग का
    काhttp://veerubhai1947.blogspot.com/

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