Monday, August 29, 2011

ग़ज़ल - - - हम घर के हिसरों का सफ़र छोड़ रहे हैं




हम घर के हिसारों का सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.
 
मन में बसी वादी का पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.
 
जाते हैं कहाँ पोंछ के माथे का पसीना?
लगता है कोई कोर कसर छोड़ रहे हैं.
 
फिर वाहिद ए मुतलक की वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव शरर छोड़ रहे हैं.
 
सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
"जुंबिश" को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.
 
है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
"मुंकिर" नहीं जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.
*****

*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर।
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    भाईचारे के मुकद्दस त्यौहार पर सभी देशवासियों को ईद की दिली मुबारकवाद।
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    कल गणेशचतुर्थी होगी, इसलिए गणेशचतुर्थी की भी शुभकामनाएँ!

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