Wednesday, December 31, 2014
Monday, December 29, 2014
Saturday, December 27, 2014
Thursday, December 25, 2014
Tuesday, December 23, 2014
Monday, December 22, 2014
Saturday, December 20, 2014
Monday, December 15, 2014
Sunday, December 14, 2014
Thursday, December 11, 2014
Tuesday, December 9, 2014
Sunday, December 7, 2014
Friday, December 5, 2014
Wednesday, December 3, 2014
Tuesday, December 2, 2014
Saturday, November 29, 2014
Thursday, November 27, 2014
Tuesday, November 25, 2014
Sunday, November 23, 2014
Friday, November 21, 2014
Wednesday, November 19, 2014
Monday, November 17, 2014
Saturday, November 15, 2014
Junbishen 254
ग़ज़ल
(आख़री ग़ज़ल को लंदन में कही)
कहा इस्म आज़म की तशरीह कर ,
कहा लाइलः की इबारत है यह ।
कहा हर मुसलमाँ , मुसलमां का हो ,
कहा कि तअस्सुब कुदूरत है यह ।
कहा यह इबादत भी इक कुफ्र है ,
कहा कि क़बीलों की आदत है यह।
कहा इश्क़ ए मारूफ में डूब जा ,
कहा कोई जिंस ए लताफ़त है यह।
कहा लज़्ज़तों की हक़ीक़त है क्या ,
कहा फ़ाक़ा मस्तों को मोहलत है यह।
कहा तू नफ़ी में ख़ुशी करके चल ,
कहा ऐन इद्दत में शिद्दत है यह।
कहा पाक ए अर्जी की तहरीक कर ,
कहा बिद्अतों की तिजारत है यह।
कहा फिर नए रब रब की पहचान कर ,
कहा कि सदा ए सदाक़त है यह।
Thursday, November 13, 2014
Junbishen 253
गज़ल
जहाँ रुक गया हूँ वह मंजिल नहीं है ,
ये तन आगे बढ़ने के क़ाबिल नहीं है .
नफ़ी लेके मुल्क ए अदम जा रहा हूँ ,
अजब मुस्बतें हैं कि हासिल नहीं हैं .
ज़ईफ़ी , नहीफ़ी , ग़रीबी , असीरी ,
सदा कर आना कोई क़ातिल नहीं है .
जो रूपोश वहशत, नफ़स चुन रही है,
वह ग़ालिब हैं मद्दे मुक़ाबिल नहीं हैं .
तेरे हुस्न की बे रुखी कह रही है ,
तेरे पास सब कुछ है, बस दिल नहीं है .
ये मुंकिर नई रहगुज़र चाहता है ,
तुम्हारी क़तारों में शामिल नहीं है .
Tuesday, November 11, 2014
Junbishen 252
गज़ल
आगही सो गई है डेरे में ,
है वह नागाह तेरे मेरे में .
थक गया करवटों से महलों की ,
आओ मिल कर जिएँ बसेरे में ,
ज़ायक़ा कुछ क़िनात का चक्खें
क्या धरा है हवस के ढेरे में .
ऐ मुआलिज इलाज कर अपना ,
मुब्तिला तू है ज़र के फेरे में .
एक बूढ़े के आँख में आँसू ,
आग लग जाएगी जज़ीरे में .
लअनतें बे असर हुईं वाइज़ ,
है ये 'मुंकिर' जज़ा के घेरे में .
Sunday, November 9, 2014
Junbishen 251
गज़ल
तलवार है समाज की फ़ितरत के हैं गले ,
गाए कहाँ पे इश्क़, कहाँ फूले और फले .
दातों तले ज़बान हो, या हाथ तू मले ,
मुंह से तेरे फिसल ही गई, बात हल्बले .
क्या खूब हो कि एक हवा, मौत की चले ,
शाखों को छोड़ जाएँ सभी, फल सड़े गले.
ख़बरें फ़ना की और किसी नव जवां को हों,
जुज़्दान में ही रख अभी, क़ब्री मुआमले .
खुद साज़ियाँ मना हैं, तो खुद सोज़ियाँ हराम,
इस मसलिकी निज़ाम में, मुश्किल हैं मरहले .
किन मौसमों में क्या क्या, बोया कहाँ कहाँ ,
मुंकिर पकी हैं फ़स्ल सभी, जा के काट ले.
Friday, November 7, 2014
Junbishen 250
गज़ल
जब तक रवा रखोगे, मेरे साथ तुम बुख़ालत,
तब तक न कर सकूँगा, मेरे यार मैं क़िनाअत।
बेदारियां ये कैसी? कि खिंचता है सम्त ए माज़ी ,
बेहोशी ही भली थी, तेरा सोना ही ग़नीमत .
क़ुर्बानियों का जज़्बा, मज़ाहिब की तश्नगी है ,
खूराक इनको भाए, वफ़ादारों की शहादत .
लिपटा हुवा जवाँ है, मज़ारों के देवता से,
शर्मिंदा जुस्तुजू है, हमागोश है अक़ीदत .
मुमकिन नहीं की ख़ालिक़, अगर हो तो मुन्तक़िम हो,
होगा अगर जो होगा , माँ बाप की ही सूरत.
मेरी तरह ही तुम भी, हटा लोगे बोझ दिल का ,
क्या शय है फ़िक्र ए मुंकिर, ज़रा समझो इसकी क़ीमत.
Wednesday, November 5, 2014
Junbishen 249
गज़ल
हरगिज़ न परेशां हों, जो इलज़ाम लगा हो,
जब तक कि हक़ीक़त में, तुम्हारी न ख़ता हो .
जो बातें बड़ों की तुम्हें अच्छी न लगी हों,
बेजा है की छोटों को, वही तुमने कहा हो.
वह मौत की तफ़सीर बताने में है माहिर,
जिसने कि कभी ज़िन्दगी, समझा न जिया हो.
जज़्बात के कानों में ज़रा उंगली लगा ले,
जब खूं में तेरे, आग कोई घोल रहा हो.
वह बोझ गुनाहों का,उठाए है कमर पे,
अब ढूंढ रहा है कि कहीं कोई गढ़ा हो.
नस्लों का तेरे चाँद सितारों पे जनम हो ,
जन्नत की नहीं, हक में मेरे ऐसी दुआ हो .
Monday, November 3, 2014
Junbishen 248
रूबाइयाँ
यह मर्द नुमायाँ हैं मुसीबत की तरह,
यह ज़िदगी जीते हैं अदावत की तरह ,
कुछ दिन के लिए निस्वाँ क़यादत आए,
खुशियाँ हैं मुअननस सभी औरत की तरह.
जन्मे तो सभी पहले हैं हिन्दू माई!
इक ख़म माल जैसे हैं ये हिन्दू भाई,
इनकी लुद्दी से हैं ये डिज़ाइन सभी,
मुस्लिम, बौद्ध, सिख हों या ईसाई.
गुफ़्तार के फ़नकार कथा बाचेंगे,
मुँह आँख किए बंद भगत नाचेंगे,
एजेंट उड़ा लेंगे जो थोड़ी इनकम,
महराज खफ़ा होंगे बही बंचेगे.
माहौल पे हो छाए तरक्क़ी के नशे में ,
नस्लों को खाते हो तरक्क़ी के नशे में,
मुसबत नफ़ी को देखो , मीजान में ज़रा,
क्या खोए हो , क्या पाए तरक्क़ी के नशे में।
Thursday, October 30, 2014
Junbishen 247
गज़ल
हर गाम रब के डर से सिहरने लगे हैं ये,
खुद अपनी बाज़ ए गश्त से डरने लगे हैं ये।
गर्दानते हैं शोखी के लम्हात को गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं ये।
रूहानी पेशवा हैं कि खुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं ये.
हैं इस लिए ख़फ़ा, मैं कभी नापता नहीं,
वह कार ए ख़ैर जिसको कि करने लगे हैं ये।
खुद अपने जलवा गाह की पामालियों के बाद ,
हर आईने पे रुक के संवारने लगे हैं ये।
मुंकिर ने फेंके टुकड़े ख़यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के ठहेरने लगे हैं ये.
Monday, October 27, 2014
Junbishen 246
गज़ल
वह्म का परदा उठा क्या, हक था सर में आ गया .
दावा ए पैगंबरी हद्दे बशर में आ गया .
खौफ़ के बेजा तसल्लुत ने बग़ावत कर दिया ,
डर का वह आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया
.
याद ए जाना तक थी बेहतर, आक़बत की फ़िक्र से ,
क्यों दिले ए नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया .
जितनी शिद्दत से तहफ़्फ़ुज़ की दुआ कश्ती में थी ,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यों भंवर में आ गया .
छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल पढ़ ,
मंदिरो मस्जिद का शैतां फिर नगर में आ गया .
एक दिन इक बे हुनर बे इल्म और काहिल वजूद ,
दीन की पुड़िया लिए, मुंकिर के घर में आ गया .
Saturday, October 25, 2014
Junbishen 245
रूबाइयाँ
इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?
Wednesday, October 22, 2014
Junbishen 244
गज़ल
मंजिल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद ओ सलाम हो.
गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो.
इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा ,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो.
माल ओ मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें ,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो.
कुछ इस तरह से फतह, हमें मौत पर मिले,
सुकराती एतदाल हो, मीरा का जाम हो.
कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अकीदा हराम हो.
Monday, October 20, 2014
Junbishen 243
रूबाइयाँ
माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?
पंडित जी भी आइटम का ही दम ले आए,
तुम भी मियाँ परमाणु के बम ले आए,
लड़ जाओ धर्म युद्ध या मज़हबी जंगें ,
हम सब्र करेगे, उम्र कम ले आए.
तेरी मर्ज़ी पे है, मै बे दाग मरूँ,
हल्का हूँ पेट का, सुबकी को चरुं,
'मुनकिर' को नहीं हज्म बहुत से मौज़ूअ.
गीबात न करे तू तो, मैं चुगली न करून,
Saturday, October 18, 2014
Junbishen 242
गज़ल
शाखशाना कोई अज़मत नहीं है,
भूल जाने में कुछ दिक़्क़त नहीं है .
दिल है नालां मगर नफरत नहीं है ,
वह मेरा आशना वहशत नहीं है.
मेरी जानिब से शर मुमकिन नहीं है ,
दिल दुखाना मेरी आदत नहीं है.
सच है दिल में , भटक रहे हो अबस,
दैर या फिर हरम में, सत् नहीं है.
आजज़ी कर चुके मुंकिर बहुत ,
और झुकने की अब ताक़त नहीं है.
मिल गया सब, मगर राहत नहीं है,
कह भी मुंकिर कि अब चाहत नहीं है.
Thursday, October 16, 2014
Junbishen 241
रूबाइयाँ
वह करके दुआ सबके लिए सोता है,
खिलक़त के लिए तुख्म -समर बोता है,
तुम और सताओ न मियां मुनकिर को,
मासूम की आहों में असर होता है.
इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
खिलक़त के लिए तुख्म -समर बोता है,
तुम और सताओ न मियां मुनकिर को,
मासूम की आहों में असर होता है.
इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
Monday, October 13, 2014
Junbishen 240
गज़ल
आओ चलें बहार में, बैठे हैं इंतज़ार में ,
रस्म ए कुहन इजाज़तें, डूबी हुई हैं ग़ार में .
माना कि आप हैं हसीं, माना जवान साल हैं ,
मैं भी खड़ा हूँ देर से, आ जाइए क़तार में ,
लिख्खे हुए वरक़ जो, छीटें ज़रा सी पड़ गईं ,
माने सभी बदल गए, देखिए चश्म ए यार में .
उनको जिहद की दाद दो, जिनको खुदा ने सब दिया ,
उनके लिए खुदाई है, उनके ही अख्तियार में .
नेक अमल इबादतें, उज्र ओ जज़ा के वास्ते ,
अपने तईं वह कर चुका, बैठा है इंतज़ार में .
सोने दे अब अना को तू, थक सी गईं हैं ये जुनैद,
राह फ़रार तू भी ले, ख़तरा है इक़्तेदार में .
Saturday, October 11, 2014
Junbishen 239
गज़ल
अब मेरी उस से बोल चाल नहीं,
है सुकूं, कोई क़ील ओ क़ाल नहीं .
मेरी उस से अजब लड़ाई है,
सर में तलवार, दिल में बाल नहीं .
तेरी रिश्वत की तर बतर रोटी,
मैं भी खाऊँ, कोई सवाल नहीं .
मैंने माना कि तेरा दीं सही,
हाँ मगर आज हस्ब ए हाल नहीं .
तालिबान ए ख़ुदा न तोड़ो बुत,
अपने पुरखों का कुछ ख़याल नहीं .
हद से करता नहीं तजाउज़ वह ,
कहाँ मुंकिर में एतदाल नहिन.
Thursday, October 9, 2014
Junbishen 238
गज़ल
हक की बातें ही नहीं करते हैं,
हक तलफ़ गर हों, बहुत डरते हैं .
वज्न को ख़त्म किया दौलत ने ,
पाँव धरती पे नहीं धरते हैं .
घर की दीवारें दरक जाएंगी ,
बात धीमे से किया करते हैं .
सजती धज्ती हैं जतन से परियाँ ,
ये है लाज़िम कि जवाँ मरते हैं .
जाम भरते हैं ख़ुद अपने सर में ,
सर निजामों से मेरा भरते हैं .
एक मुंकिर के सिवा बाक़ी सब ,
तेरे जन्नत की रविश चरते हैं .
Tuesday, October 7, 2014
Junbishen 237
नज़्म
वक़्त ए अजल
ख़ामोश रहो, वक़्त अजल छेड़ न जाना ,
मत पढना पढाना, न कोई रोना रुलाना .
ठहरो, कि मुझे थोड़ा सा माज़ी में है जाना ,
बचपन की झलक, आए जवानी का ज़माना .
माँ बाप की शिफ्क़त, वो बुजुर्गों की मुहब्बत ,
झगड़े वो बहिन भाई के, वह प्यार की शिद्दत ,
दादी की तरफ़दारी, वो नानी की मुरव्वत ,
ख़ाला की तबअ की सी, मामूं की रिआयत .
स्कूल के दर्जात में, आला मैं बना था ,
आया जो जवाँ साल तो राजा मैं बना था ,
इक सुर्ख़ परीज़ाद का दूलह मैं बना था,
क्या खूब हुवा नाना ओ दादा मैं बना था ,
अब हल्का हुवा जाता हूँ, बीमार बदन से ,
छुट्टी हुई जाती है, अदाकार बदन से ,
मैं, मैं था बहुत दूर था, जाँदार बदन से ,
इस मैं ने बड़े ज़ुल्म किए यार बदन से .
तोहफ़े में मिली ज़ीस्त की सौग़ात विदा हो ,
आलिम हुवा मैं सच का, ख़ुराफ़ात विदा हो ,
मातम न तमाशा हो, मेरी ज़ात विदा हो,
संजीदा निगाहों से,ये बारात विदा हो .
Sunday, October 5, 2014
Junbishen 236
कूकुर से बछिया भए , बछिया से मृग राज ,
नेता बैठे मंच पर , सर पे रख्खे ताज .
प्रजा तंत्र के मन्त्र में , बेबस है वन्चास ,
इक्यावन की मौज है , बाकी का उपहास .
बस जा अपने आप में , फिर दुन्या की जान ,
पंडित जी की रागनी , मुल्ला जी की तान .
धन साधन चुक जाए जब , भूख का हो आभास ,
मुंकिर नाक दबाए के रोकीं लीनेह सांस .
देखो उसके बाल ओ पर निकले हैं शादाब ,
सब से पहले ए हवा , दे मेरे आदाब .
दिन अब अच्छे आए हैं , क़र्ज़ा देव चुकाए ,
ऐसा हरगिज़ मत किहौ , यह बच्चन पर जाए .
Friday, October 3, 2014
Junbishen 235
रूबाइयाँ
आवाज़ मुझे आखिरी देकर न गए,
आवाज़ मेरी आखिरी लेकर न गए,
बस चलते चलाते ही जहाँ छोड़ दिया,
अफ़सोस कि समझा के, समझ कर न गए.
मदरसों से धरम अड्डे से आते हैं वह ,
नफरतों को, कुदूरतों को फैलाते हैं वह ,
मान लेती है इन्हें भोली यह अवाम ,
सीख लेती है जो सिखलाते हैं वह .
होते हुए पुर अम्न ये हैबत में ढली,
लगती है ख़तरनाक मगर कितनी भली,
है ज़िन्दगी दो चार दिनों की ही बहार,
ये मौत की हुई , जो फूली न फली.
Wednesday, October 1, 2014
Junbishen 234
दोहे
अन चाह कुछ मशविरा , बिन माँगी कुछ राय ,
खा पी कर चलते बने , देकर राम सहाय .
आ देखे शमशान को या फिर कब्रिस्तान ,
जीवन की सच्चाई को , ऐ भोले नादान .
काम किसी के आए न , वह मन का कंगाल ,
पूछे सब से खैरियत , पूछे सब से हाल .
दलित दमित शोषित सभी , धरम बदलते जाएँ ,
पूर्व जनम अंजाम को , पंडित जब तक गाएँ .
अन चाह कुछ मशविरा , बिन माँगी कुछ राय ,
खा पी कर चलते बने , देकर राम सहाय .
Tuesday, September 23, 2014
Junbishen 233
गज़ल
खुद से चुनी अज़ीयत ,
रोज़ा नफ़िल तहारत .
तामीर है नफी में ,
है इक जुनूं इबादत .
दो बीवी तेरह बच्चे ,
अल्लाह तेरी रहमत .
सब्र ओ रज़ा का चेहरा ,
दर पर्दा ए बुखालत .
बे तुख्म का बशर था ,
सुबहान तेरी क़ुदरत .
इज्ज़त दे चाहे ज़िल्लत ,
मल्हूज़ हो दयानत .
मशहूर हो रहा है ,
मुंकिर बफ़ज्ल ए तोहमत।
Saturday, September 20, 2014
Junbishen 232
गज़ल
इक लम्हा लग्ज़िसों का अज़ाब ए हयात है,
ग़लबा है इक ख़ला का , भरी कायनात है.
पाबंदियों की सुर्ख़ लकीरें लिए हुए ,
रातों को दिन कहे, तो कहे दिन को रात है .
बस है बहुत लतीफ़, हक़ीक़त को छोडिए ,
इन झूटे तर्जुमों में, बला की सबात है .
आइना तेरे दिल का, निगाहों में नस्ब है ,
सुनने की बात, और न कहने की बात है.
मुन्सिफ की मुजरिमो की, हम आगोश हैं जड़ें,
इन्साफ़ मर चुका है, ये क़ौमी वफ़ात है.
ऐ डाकुओ! तुम्हारे भी अपने उसूल हैं,
हातिम को लूट लो, बड़ी नाज़ेबा बात है.
Wednesday, September 17, 2014
Junbishen 231
नज़्म
ख़ुदकुशी
ख़ुद कुशी जुर्म नहीं, उम्र के क़ैदी हैं सभी ,
मुझको आती है हँसी, आलम ए हैरत में कभी ,
रग पे, धड़कन पे, हुकूमत की इजारा दारी ,
अपनी सासों में भी, गोया है दख्ल ए सरकारी .
गर किसी का कोई एक चाहने वाला भी न हो ,
शर्म ओ ग़ैरत का, अगर एक नवला भी न हो ,
दर्द ए अमराज़ से जीने की सज़ा मिलती हो ,
एक लाचार को रहमों की, बला मिलती हो ,
बुज़दिली ये है कि, मर मर के जिए जाते हैं ,
है तो ज़िल्लत की, मगर सांस लिए जाते हैं .
मरना आसान नहीं है, ये बहुत मुश्किल है ,
वक़्त माकूल पर मर ले, वह बशर कामिल है.
जिंदगानी पे अगर वाक़ई दिल से रो दे ,
जीना चाहें तो जिएन, वर्ना ज़िन्दगी खो दे .
कोढ़ी मफ़लूज ओ अपाहिज को चलो समझाएं ,
खुद कुशी करने की तरकीब, उन्हें बतलाएं ,
उनको बतलाएं, ज़मीं हद के उन्हें सहती है ,
ज़िन्दा लाशों से ज़मीं, पाक नहीं रहती है .
Monday, September 15, 2014
Junbishen 230
नज़्म
फ़िक्र ए आक़बत
ये कौन शख्स है, जो झुर्रियों का पैकर है ,
कमर को दोहरी किए, बर्फ़ जैसी सुब्ह में ,
सदा अज़ान की सुन कर, वह जानिब ए मस्जिद ,
रुकु सुजूद की हरकत को, भागा जाता है।
वह कोई और नहीं , देखो ग़ौर से उसको ,
जो अपने फ़न में था यकता , वह मिस्त्री है वह ,
लड़कपने में वह ग़ुरबत की मार खाए है ,
जवान था कभी तो गाज़ी ए मशक़्क़त था .
नहीं सुकून ए दरूं अब भी उसकी क़िस्मत में ,
खबर फ़लक़ की उसे अब सताए रहती है ,
बड़ी ही ज़्यादती की है , ये जिसने भी की हो ,
नहीफ़ बूढ़े को, ये फ़िक्र ए आकबत दे के .
Saturday, September 13, 2014
Junbishen 239
रूबाइयाँ
ग़ारत हैं इर्तेक़ाई मज़मून वले,
अज़हान थके हो गए, ममनून वले,
साइन्स के तलबा को खबर खुश है ये,
इरशाद हुवा "कुन" तो "फयाकून"वले,.
तुम अपने परायों की खबर रखते थे,
हालात पे तुम गहरी नज़र रखते थे,
रूठे हों कि छूटे हों तुम्हारे अपने,
हर एक के दिलों में, घर रखते थे.
बेयार ओ मददगार हमें छोड़ गए,
कैसे थे वफ़ादार हमें छोड़ गए,
अब कौन निगहबाने-जुनूँ होगा मेरा,
लगता है कि घर बार हमें छोड़ गए.
Thursday, September 11, 2014
Junbishen 238
दोहे
सब से मुंकिर राखियो , जय जय राम सलाम ,
भिड जाए जब चूतिया , मुंह पर लगे लगाम .
तन सिंचित मोती जड़ित , मन मोहन मुस्कान ,
है सृजित शोभा गणित ,अल्ला तेरी शान .
उपदेशों से न बनी , लाए ईश आदेश ,
शक्ति को भगती मिले , ऐसे हैं आदेश .
दावत हक की ले हैं , खिला रहे हैं भूख ,
इनके उनके फ़िक्र में भी गए हैं सूख .
खोले अपना डाक चार , बैठा उपर खुदाए ,
ख़त ले आया डाकिया , मार मार पढवाए .
Tuesday, September 9, 2014
Junbishen 237
रूबाइयाँ
इन रस्म रवायत की मत बात करो,
तुम जिंसी खुराफात की मत बात करो,
कुछ बातें हैं मायूब नई क़दरों में ,
मज़हब की, धरम ओ ज़ात की मत बात करो.
आओ कि लबे-क़ल्ब, खुदा को ढूंढें,
रूहानी दुकानों में, वबा को ढूंढें,
क्यूं कौम हुई पस्त सफ़े अव्वल की?
मज़हब की पनाहों में ख़ता को ढूंढें.
क्यों सच के मज़ामीन यूँ मल्फूफ़ हुए,
फ़रमान बजनिब हक, मौकूफ हुए,
इंसान लरज़ जाता है गलती करके,
लग्ज़िश के असर में खुदा मौसूफ़ हुए.
Sunday, September 7, 2014
Junbishen 236
गज़ल
मय्यत का मेरी आग या दरिया हो ठिकाना ,
तुम खाता बही लेके मियाँ क़ब्र में जाना .
पहले तो वज़ू और रुकुअ तक ही फसाना ,
मैं फंस जो गया तो मुझे उंगली पे नचाना .
इंसान का है ज़िक्र मवेशी का नहीं है ,
लाखों को हांकता है यहाँ फ़र्द ए शयाना .
है गिलमा के तोहफ़े की तलब गार इमामत ,
हुजरे में मसाजिद के न बच्चों को पढ़ना .
अपनी ख़ुशी के रोड़े हटा ले तो मैं चलूँ ,
जिन रास्तों पर चलने को कहता है ज़माना .
अल्ला मियां की ज़ात घसीटे है बहस में ,
दर अस्ल मेरी ज़ात है ज़ाहिद का निशाना
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