गज़ल
आगही सो गई है डेरे में ,
है वह नागाह तेरे मेरे में .
थक गया करवटों से महलों की ,
आओ मिल कर जिएँ बसेरे में ,
ज़ायक़ा कुछ क़िनात का चक्खें
क्या धरा है हवस के ढेरे में .
ऐ मुआलिज इलाज कर अपना ,
मुब्तिला तू है ज़र के फेरे में .
एक बूढ़े के आँख में आँसू ,
आग लग जाएगी जज़ीरे में .
लअनतें बे असर हुईं वाइज़ ,
है ये 'मुंकिर' जज़ा के घेरे में .
कल दम-गज़र फिर चराग़ सहर हुवा..,
ReplyDeleteअपनी शरअ को ढूंडता अँधेरे में.....
शरअ = सही राह