गज़ल
वह्म का परदा उठा क्या, हक था सर में आ गया .
दावा ए पैगंबरी हद्दे बशर में आ गया .
खौफ़ के बेजा तसल्लुत ने बग़ावत कर दिया ,
डर का वह आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया
.
याद ए जाना तक थी बेहतर, आक़बत की फ़िक्र से ,
क्यों दिले ए नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया .
जितनी शिद्दत से तहफ़्फ़ुज़ की दुआ कश्ती में थी ,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यों भंवर में आ गया .
छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल पढ़ ,
मंदिरो मस्जिद का शैतां फिर नगर में आ गया .
एक दिन इक बे हुनर बे इल्म और काहिल वजूद ,
दीन की पुड़िया लिए, मुंकिर के घर में आ गया .
बात करता था जो पैगम्बरों-पीर की फ़क़ीर की..,
ReplyDeleteचश्मे-हैवाँ से चला आबो-सुर्खो-साग़र में आ गया.....
चश्मे-हैवाँ = अमरत का कुण्ड