नज़्म
फ़िक्र ए आक़बत
ये कौन शख्स है, जो झुर्रियों का पैकर है ,
कमर को दोहरी किए, बर्फ़ जैसी सुब्ह में ,
सदा अज़ान की सुन कर, वह जानिब ए मस्जिद ,
रुकु सुजूद की हरकत को, भागा जाता है।
वह कोई और नहीं , देखो ग़ौर से उसको ,
जो अपने फ़न में था यकता , वह मिस्त्री है वह ,
लड़कपने में वह ग़ुरबत की मार खाए है ,
जवान था कभी तो गाज़ी ए मशक़्क़त था .
नहीं सुकून ए दरूं अब भी उसकी क़िस्मत में ,
खबर फ़लक़ की उसे अब सताए रहती है ,
बड़ी ही ज़्यादती की है , ये जिसने भी की हो ,
नहीफ़ बूढ़े को, ये फ़िक्र ए आकबत दे के .
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