Sunday, September 7, 2014

Junbishen 236


गज़ल

मय्यत का मेरी आग या दरिया हो ठिकाना ,
तुम खाता बही लेके मियाँ क़ब्र में जाना . 

पहले तो वज़ू और रुकुअ तक ही फसाना ,
मैं फंस जो गया तो मुझे उंगली पे नचाना .

इंसान का है ज़िक्र मवेशी का नहीं है ,
लाखों को हांकता है यहाँ फ़र्द ए शयाना  .

है गिलमा के तोहफ़े की तलब गार इमामत ,
हुजरे में मसाजिद के न बच्चों को पढ़ना .

अपनी ख़ुशी के रोड़े हटा ले तो मैं चलूँ ,
जिन रास्तों पर चलने को कहता है ज़माना .

अल्ला मियां की ज़ात घसीटे है बहस में ,
दर अस्ल मेरी ज़ात है ज़ाहिद का निशाना 

No comments:

Post a Comment